अगर गणेश शंकर विद्यार्थी आज होते — तो किससे सवाल करते? जयंती पर समकालीन भारत के सन्दर्भ में

भारत की पत्रकारिता के इतिहास में गणेश शंकर विद्यार्थी वह नाम हैं जिन्होंने यह साबित किया कि कलम की स्याही खून से भी ज्यादा असरदार होती है।

उन्होंने “प्रताप” के ज़रिए जनता की आवाज़ को सत्ता के दरबार तक पहुँचाया, बिना डरे, बिना बिके।

आज, जब मीडिया, समाज और राजनीति तीनों एक नए मोड़ पर हैं —

यह प्रश्न प्रासंगिक है:

अगर गणेश शंकर विद्यार्थी आज ज़िंदा होते, तो वे किन बातों पर सबसे ज़्यादा सवाल करते?

1. मीडिया का मौन और बाज़ार का शोर

विद्यार्थी जी के लिए पत्रकारिता सत्ता से प्रश्न करने की कला थी, न कि विज्ञापन जुटाने की दौड़।

आज मीडिया संस्थान ‘प्रायोजक हित’ और ‘राजनीतिक सुविधा’ के बीच झूल रहे हैं।

“सत्ता से निकटता” अब “सफलता” कहलाने लगी है।

वे इस स्थिति पर तंज कसते हुए लिखते —

“जहाँ खबरें बिकने लगें, वहाँ सच भूख से मर जाता है।”

विद्यार्थी जी आज के डिजिटल युग में शायद वही काम करते जो उन्होंने 1913 में किया था —

एक स्वतंत्र मंच बनाते जहाँ आम आदमी की आवाज़, न कि विज्ञापनदाता की, प्रधान होती।

2. धर्म के नाम पर राजनीति और समाज में बढ़ती दीवारें

1931 में उन्होंने जान देकर दिखाया था कि मानवता किसी धर्म से बड़ी है।

आज जब सोशल मीडिया पर धार्मिक द्वेष को ट्रेंड बनाया जा रहा है,

वे शायद लिखते —

“भारत का असली धर्म – सहअस्तित्व है, न कि प्रतियोगिता।”

विद्यार्थी जी मानते थे कि राष्ट्र की आत्मा उसकी एकता में बसती है।

आज के ध्रुवीकृत माहौल में वे फिर वही अपील करते जो उन्होंने दंगों के बीच की थी —

“हिंसा किसी की जीत नहीं, सबकी हार है।”

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3. युवाओं का दिशा भ्रम और विचारहीनता

आज का युवा सूचना के महासागर में है, पर विचारों के रेगिस्तान में भटक रहा है।

विद्यार्थी जी युवाओं को सबसे बड़ा ‘विचार-सैनिक’ मानते थे।

वे कहते —

“युवा वह नहीं जो भीड़ में शामिल हो जाए,

बल्कि वह है जो सच को पहचान ले, चाहे अकेला रह जाए।”

उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार नहीं,

विवेक और नैतिकता का विकास था —

एक ऐसा पाठ जो आज की शिक्षा नीति और छात्र राजनीति दोनों भूलते जा रहे हैं।

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4. राजनीति का नैतिक पतन

गणेश शंकर विद्यार्थी ने हमेशा राजनीति को सेवा का माध्यम कहा, न कि सत्ता का खेल।

आज जब पार्टियाँ विचारधारा से अधिक छवि प्रबंधन में व्यस्त हैं,

वे यह कहते —

“जहाँ सिद्धांत गिरवी रखे जाएँ, वहाँ जनता का विश्वास दिवालिया हो जाता है।”

वे भ्रष्टाचार, अवसरवाद और जनसंवाद की कमी पर सबसे तीखा संपादकीय लिखते।

उनकी कलम नेताओं से यह सवाल करती —

“क्या आपने सत्ता पाई, या जनता को खो दिया?”

5. पत्रकारिता में साहस का अभाव

विद्यार्थी जी ने अंग्रेजी हुकूमत के सामने झुकना नहीं सीखा था।

आज जब सच्चे पत्रकारों को डराया या चुप कराया जाता है,

वे शायद यही लिखते —

“पत्रकार का धर्म है डर को अस्वीकार करना;

क्योंकि जब कलम काँपती है, लोकतंत्र गिर जाता है।”

वे हर उस आवाज़ के साथ खड़े होते जिसे “देशविरोधी” कहकर दबाने की कोशिश की जा रही है,

क्योंकि वे जानते थे —

“सत्ता से प्रेम पत्रकारिता का अंत है।”

6. आम आदमी की उपेक्षा

विद्यार्थी जी के लेखन में हमेशा किसान, मज़दूर और निम्नवर्ग के लोग केंद्र में थे।

आज जब विकास की गाथाएँ शेयर बाज़ार से लिखी जाती हैं,

वे पूछते —

“अगर किसान भूखा है, तो क्या सच में देश समृद्ध हुआ?”

वे ‘विकास’ शब्द के पीछे छिपी असमानता को उजागर करते,

और बताते कि तरक्की का पैमाना GDP नहीं, इंसान की गरिमा है।

7. लोकतंत्र का क्षय और नागरिकों की चुप्पी

विद्यार्थी जी को शायद सबसे ज्यादा चिंता जनता की चुप्पी से होती।

वे जानते थे कि अन्याय तभी बढ़ता है जब समाज बोलना छोड़ देता है।

वे लिखते —

“सत्ता की तानाशाही से बड़ा खतरा है नागरिकों की चुप्पी।”

वे जनता से कहते —

“प्रश्न करना देशद्रोह नहीं, देशभक्ति का पहला कर्तव्य है।”

विद्यार्थी जी आज होते तो क्या करते?

अगर गणेश शंकर विद्यार्थी आज होते,

तो वे शायद किसी चैनल के पैनल में नहीं,

सड़क पर एक अखबार बाँट रहे होते — सच का, साहस का, और उम्मीद का।

वे लिखते, पर झुकते नहीं।

वे लड़ते, पर नफरत से नहीं, विचारों से।

उनकी जयंती हमें याद दिलाती है कि

पत्रकारिता का अर्थ “राय फैलाना” नहीं,

“सत्य को ज़िंदा रखना” है —

चाहे कीमत जान देनी पड़े।

🕊️ गणेश शंकर विद्यार्थी आज भी हमारे भीतर जीवित हैं —

हर उस कलम में, जो डर के बावजूद सच लिखने की हिम्मत रखती है।

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  • Ankit Awasthi

    Regional Editor

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