राम मनोहर लोहिया: सामाजिक चेतना का शिल्पकार

12 अक्टूबर 1967 को नई दिल्ली में 57 वर्ष की आयु में लोहिया का देहांत हुआ था। इसे आज उनकी पुण्यतिथि के रूप में याद किया जाता है — वह दिन जिस दिन भारतीय समाज ने एक तीव्र विचारधारा की आवाज खो दी थी। लेकिन उनके विचार और संघर्ष आज भी जीवंत हैं।

लोहिया का जीवन बताता है कि राजनीति केवल सत्ता का आग्रह नहीं, बल्कि न्याय, भागीदारी और सामाजिक संवेदनशीलता का मंच हो सकती है।


👤 जीवन-पृष्ठभूमि और राजनीतिक यात्रा

  • राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में हुआ था। उनकी शिक्षा-यात्रा बंगाल और जर्मनी तक फैली थी, जहाँ उन्होंने राजनीतिक अर्थशास्त्र की पढ़ाई की।
  • उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई और बाद में भारतीय समाजवादी आंदोलन के मुखर नेता बने।
  • कांग्रेस के भीतर उन्होंने समाजवादी विचारों को आगे बढ़ाया, लेकिन बाद में वह कांग्रेस से अलग हो गए और छोटे दलों, आन्दोलनकारी समूहों और जनसंपर्क के माध्यम से जनतांत्रिक राजनीति का नया प्रयोग किया।
  • उन्होंने अनेक समय तक संसद सदस्य रहे, एवं सामाजिक न्याय, असमानता और भाषा-संघर्ष जैसे विषयों पर लगातार आवाज़ उठाई।

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📖 विचारों की विरासत: प्रमुख सिद्धांत और मत

राम मनोहर लोहिया ने राजनीति और समाज की दिशा तय करने वाले कई विचार प्रस्तुत किए। उनमें से कुछ मुख्य हैं:

  1. समय की तत्कालीन क्रांति (Doctrine of Immediacy): लोहिया मानते थे कि प्रत्येक कदम महत्वपूर्ण है; छोटे-छोटे बदलाव ही लंबे संघर्ष की दिशा निर्धारित करते हैं।
  2. भाषा और असमानता: इंग्लिश और अन्य “विदेशी” भाषा शिक्षा की बाधा बन सकती है। उन्होंने हिंदी, क्षेत्रीय भाषाओं और मातृभाषा शिक्षा को बढ़ावा दिया।
  3. जाति और अवसर: उन्होंने कहा कि जाति व्यवस्था अवसरों को बंद करती है — और जब अवसर ही प्रतिबंधित हो, तो प्रतिभा का विकास नहीं हो सकता।
  4. अराजक्रांतिक स्वरूप: लोहिया ने यह नहीं माना कि बदलाव केवल राज्य शक्ति से होगा — उन्होंने नागरिक समाज, आन्दोलन और प्रतिरोध को महत्वपूर्ण माना।
  5. गैर कांग्रेसवाद: वे यह विचार रखते थे कि भारत का लोकतंत्र कांग्रेस की एकाधिकार स्थिति पर नहीं टिका होना चाहिए।

इन विचारों ने बाद की पीढ़ियों की राजनीति और सामाजिक आंदोलन को दिशा दी — वे न केवल नारा बने, बल्कि विवाद, विमर्श और बदलाव का आधार बने।


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🔍 आज की प्रासंगिकता: क्यों लोहिया आज भी ज़रूरी है?

विकास की गिनती केवल आर्थिक मापदंडों से नहीं — जनता की सामाजिक न्याय की अनुभूति से होनी चाहिए — यह पुरानी लेकिन आज भी प्रासंगिक सोच लोहिया ने दी।

भारत में अब भी भाषा, शिक्षा और तकनीकी विभाजन हैं — लोहिया की भाषा-समानता की मांग आज भी प्रभावी है।

लोकतंत्र की चुनौतियाँ जैसे सत्ता केंद्रीकरण, पार्टी नीति-निर्णय और नागरिक आज़ादी की सीमाएँ — इन पर लोहिया की चेतावनी हमें याद दिलाती है कि सत्ता को जवाबदेह बनाना ज़रूरी है।

सामाजिक आंदोलन और नागरिक अभिव्यक्ति में लोहिया की अवधारणा, जैसे प्रतिरोध, सत्याग्रह, भागीदारी — ये आज भी युवा आंदोलनों और सामाजिक अभियानों के लिए प्रेरणा हैं।

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  • Ankit Awasthi

    Regional Editor

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