जतिंद्रनाथ दास: जयंती विशेष

जतिंद्रनाथ दास: भारत की आज़ादी की लड़ाई केवल बंदूकों और बमों की कहानी नहीं थी — यह उन विचारों और आत्मबलिदानों की यात्रा थी जिन्होंने एक राष्ट्र की आत्मा को जागृत किया। उन अमर आत्माओं में एक नाम है — जतिंद्रनाथ दास, जिसे लोग प्यार से जतिन दा कहते थे।

जतिंद्रनाथ दास: क्रांति की राह पर एक संवेदनशील मन

27 अक्तूबर 1904 को बंगाल में जन्मे जतिन दा बचपन से ही असाधारण प्रतिभा के धनी थे। जहाँ अन्य बच्चे खेल में खोए रहते, वहीं जतिन का मन किताबों और समाज में अन्याय देखने में लगा रहता था। वे मानते थे कि स्वतंत्रता केवल विदेशी शासन से मुक्ति नहीं, बल्कि अन्याय, असमानता और अमानवीयता से भी आज़ादी है।

युवावस्था में ही उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ समाज की पीड़ा को गहराई से महसूस किया। गांधी के असहयोग आंदोलन ने उन्हें अहिंसा की दिशा दिखाई, लेकिन जेलों में भारतीय कैदियों की दुर्दशा देखकर उन्होंने महसूस किया कि बदलाव के लिए केवल नारे नहीं, बल्कि साहसिक कदम उठाने होंगे।

जतिंद्रनाथ दास: जेल की दीवारों के भीतर एक युद्ध

1जतिंद्रनाथ दास: 929 में जब उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में रखा गया, तो उन्होंने देखा कि भारतीय राजनीतिक कैदियों के साथ यूरोपीय बंदियों से कहीं अधिक कठोर व्यवहार किया जा रहा है। उसी पल उन्होंने संकल्प लिया — “या तो यह भेदभाव खत्म होगा, या मेरा जीवन।”
13 जुलाई 1929 से उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की। यह मात्र भोजन का त्याग नहीं था, यह आत्मसम्मान की रक्षा का अभियान था। दिन बीतते गए, शरीर कमजोर होता गया, लेकिन जतिन दा का हौसला और भी प्रखर होता गया।

63वें दिन उनकी देह ने साथ छोड़ दिया — परंतु उनकी आत्मा ने उस तंत्र को झकझोर दिया जो अन्याय को सामान्य समझता था।

विचार जो आज भी गूंजते हैं

जतिन दास ने कभी बड़े भाषण नहीं दिए, न ही प्रसिद्धि चाही। उनका संघर्ष मौन था, पर असर तूफान सा। उन्होंने यह सिखाया कि क्रांति केवल हथियारों से नहीं होती — क्रांति होती है जब एक इंसान अन्याय को स्वीकार करने से इंकार कर देता है।

उनकी मृत्यु ने एक नई चेतना जगाई — कि स्वतंत्रता सिर्फ राजनीतिक नहीं, नैतिक भी होनी चाहिए।

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आज के भारत में जतिन दास की प्रासंगिकता

जतिंद्रनाथ दास: आज जब नागरिक अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक समानता पर बहस होती है, जतिन दास का नाम हमें याद दिलाता है कि सच्चा राष्ट्रनिर्माण केवल संविधान से नहीं, बल्कि नैतिक साहस से होता है।
उनकी आत्मा हमें प्रेरित करती है —

“अगर तुम अन्याय के सामने मौन हो, तो तुम भी उसी अन्याय का हिस्सा हो।”

अगर गणेश शंकर विद्यार्थी आज होते — तो किससे सवाल करते? जयंती पर समकालीन भारत के सन्दर्भ में

विरासत जो मिटती नहीं

आज उनके नाम पर पार्क, सड़कें, और स्टेशन हैं — पर असली स्मारक है वह विचार जो हर उस दिल में धड़कता है जो सत्य और समानता के लिए जीना चाहता है। जतिन दास हमें यह सिखाते हैं कि स्वतंत्रता कभी उपहार नहीं होती, यह संघर्ष से अर्जित की जाती है।


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  • Ankit Awasthi

    Regional Editor

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