भारत के लोकतंत्र की असली ताकत उसकी मतदाता-सूची में छिपी है। यही वह दस्तावेज़ है जो यह तय करता है कि किसे मतदान का अधिकार है — और किसे नहीं। इसी सूची को सही, अद्यतन और पारदर्शी बनाए रखने के लिए चुनाव आयोग समय-समय पर “Special Intensive Revision” (SIR) यानी विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान चलाता रहा है।
SIR क्या है और क्यों ज़रूरी है
SIR का मकसद पुराने या गलत नाम हटाना, मृत मतदाताओं की प्रविष्टियाँ साफ़ करना और नए योग्य नागरिकों को जोड़ना है। यह सामान्य वार्षिक संशोधन (Annual Revision) से अलग होता है, क्योंकि इसमें घर-घर जाकर फॉर्म भरे जाते हैं, पहचान दस्तावेज़ों की पड़ताल होती है और बूथ-लेवल अधिकारी (BLO) सीधे नागरिकों से संपर्क करते हैं।
सरल शब्दों में — SIR लोकतंत्र की डिजिटल झाड़ू है, जो मतदाता-सूची को ताज़ा और भरोसेमंद बनाती है।
इतिहास — यह “नई” पहल नहीं है
हाल ही में जब आयोग ने एक नया SIR घोषित किया, तो इसे कई लोगों ने “नई पहल” समझ लिया। पर सच यह है कि ऐसा अभ्यास अब तक 8 बार अलग-अलग राज्यों और चरणों में किया जा चुका है।
पहली बार 2002-03 में, फिर 2005, 2008, 2013, 2017, 2019, 2021 और 2024 में कुछ-न-कुछ रूप में Special Intensive Revision हुई है। हर बार इसका उद्देश्य वही रहा — मतदाता सूची की प्रामाणिकता बढ़ाना।
2003-04 में जब इसे बड़े स्तर पर लागू किया गया, तब चुनाव आयोग ने पहली बार इसे तकनीक के सहारे जोड़ने की कोशिश की। आधार-लिंकिंग और डिजिटल फॉर्म-अपलोड जैसी अवधारणाएँ आगे चलकर इसी दौर से विकसित हुईं।
2025 में नया दौर — क्यों चर्चा में है
इस साल (2025) आयोग ने फिर से SIR शुरू किया — पहले बिहार में और अब 12 राज्यों में फेज-वाइज़ विस्तार की योजना है। इस बार घर-घर सत्यापन के साथ डिजिटल सबमिशन, QR-कोड वाले फॉर्म और 90 दिन की आपत्ति विंडो जैसी प्रक्रिया जोड़ी गई है।
आयोग का कहना है कि “एक भी गलत या डुप्लिकेट नाम, पूरे निर्वाचन की विश्वसनीयता पर असर डालता है।”
विवाद कहाँ है
लेकिन इस बार SIR केवल प्रशासनिक अभियान नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक बहस बन गया है।
आलोचकों का तर्क है कि अत्यधिक दस्तावेज़-सत्यापन और घर-घर जांच से गरीब, प्रवासी, किरायेदार और अल्पसंख्यक वर्गों के नाम कटने का खतरा रहता है।
2019 और 2021 की कुछ राज्यों की रिपोर्टों में ऐसे मामले सामने आए जहाँ योग्य मतदाताओं के नाम गलती से हट गए। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से SIR प्रक्रिया में पारदर्शिता और शिकायत-निवारण को और मज़बूत करने को कहा था।
तकनीक का दोधारी असर
डिजिटल इंडिया के इस दौर में आयोग तकनीक का उपयोग बढ़ा रहा है, पर यही सबसे बड़ी चुनौती भी बन रही है।
एक ओर आधार-लिंकिंग से फर्जी नाम हटाना आसान हुआ है, दूसरी ओर डेटा-एरर और सर्वर-मिसमैच जैसी समस्याएँ ईमानदार मतदाताओं को भी परेशान करती हैं।
डेटा सुरक्षा का सवाल भी गंभीर है — मतदाता सूची अब साइबर हमलों के लिए एक नया लक्ष्य बन सकती है।
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दुनिया से सबक
कई लोकतंत्र, जैसे कनाडा और ऑस्ट्रेलिया, हर चुनाव से पहले आंशिक पुनरीक्षण करते हैं, पर इतने बड़े पैमाने का special drive बहुत कम देशों में होता है। भारत जैसे विशाल देश में यह ज़रूरी भी है और चुनौतीपूर्ण भी। फर्क यह है कि वहाँ independent audit यानी बाहरी समीक्षा संस्थान भी प्रक्रिया की निगरानी करते हैं — जो भारत में अभी तक नहीं है।
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आगे का रास्ता
SIR को सफल बनाने के लिए तीन सुधार ज़रूरी हैं:
- समान नियम: हर राज्य में एक जैसी प्रक्रिया और दस्तावेज़-मानक हों।
 - डिजिटल सुरक्षा: डेटा के एन्क्रिप्शन और प्राइवेसी के लिए सख्त प्रोटोकॉल बने।
 - जनसहभागिता: नागरिक संगठनों को निगरानी प्रक्रिया में शामिल किया जाए ताकि कोई वर्ग छूटे नहीं।
 
भारत का SIR अभियान चुनाव सुधार की दिशा में अहम कदम है — लेकिन इसे “साफ़ सूची” के नाम पर किसी की आवाज़ दबाने का औज़ार नहीं बनना चाहिए। लोकतंत्र की सुंदरता उसकी विविधता में है, और वही तब बचेगी जब हर योग्य नागरिक का नाम मतदाता-सूची में सही जगह दर्ज होगा।







